May 12, 2013

हर वक़्त...



हर वक़्त मई यह सोचती हू ,
इस अंजान शहर से , मुझे ले जाने कोई आएगा

जिस तरह मेरी बिदाई मे हज़ारो की भीड़ जमी  थी
सोचती हू , क्या इस बार भी वैसे ही महफ़िल सजेगी,
क्या अपने सिर्फ़ देते है सुख मे साथ ?
और क्या अब कटेगी यूही मेरी हर रात.
फिर भी एक विश्वास है मन मे,
की इस अंजान शहर से , मुझे ले जाने कोई आएगा


जिसे थमा दिया मेरा हाथ, वो छोड़ गया मेरा साथ,
इस अंजान सी शहर, इस अंजन सी भीड़ , इस अंजन सी रत
मे आज भी मेरा दिल कहता है, मुझे ले जाने कोई आएगा

जिन्होने मुझे जानम दिया , उन्होने ही कर दिया पराया
लखो की भीड़ मे अकेले , एक मई हू और मेरा साया
 तन्हाई की इस आग मे झुलस्ति रहती हू,यह सोच कर तड़पति रहती हू
की  इस अंजन शहर से मुझे ले जाने कोई आएगा.

ना आए राखी के बंधन मे बँधे हुए मेरे भाई
ना आई ममता की मूरत कहलाने वाली , मेरी माई
जो होगई मेरी विदाई, बस मई होगई इनके लिए पराई..
मैने कई छीट्टी , कई संदेश भिजवाई, 
उत्तर मे खत  आई, तू हो गई है अब पराई
मा की हर बात की कभी ना की मनाई,
पिताजी के हर नियमो का पालन कर आई
क्या यही मेरा कसूर था, जो तक़दीर ने यह दिन दिखाई,

लड़  रही हू अपने हालात से, 
और थक जाती हू इस संघर्ष से,
उगता सूरज एक उम्मीद की किरण ले आता है,
मॅ हालात से लड़ पौँगी यह दिलासा दे जाता है,
पर हर शाम ,ढलते सूरज के साथ
मन मे उठती है एक बात

की क्या, इस अंजान शहर से ले जाने कोई  कभी आएगा…??????



5 comments:

Leave Your Thoughts Here!! It Would be Published After Moderation :)

You may enjoy reading !!!